Saturday 11 April 2020


               दो प्रधानमंत्रियों के दो कोष का द्वंद
गांधी जी द्वारा स्थापित अखिल भारत चरखा संघ से विकेन्द्रित इकाई क्षेत्रीय पंजाव खादी मंडल, पानीपत ने जब यह निर्णय लिया कि उनके कार्यकर्ता एक दिन का वेतन ‘प्रधानमंत्री केयर्स फंड’ (Prime Minister Citizen Assistance and Relief in Emergency Situation Fund) में भेजेंगे, कई ऐसे संदेश प्राप्त हुए हैं जिनमे सुझाया गया है की यह राशी पहले से बने प्रधानमंत्री राष्ट्रीय सहायता कोष में जमा कराया जाना चाहिए न कि नए बने प्रधानमंत्री केयर्स फंड में. ऐसे सवाल कई लोगों, सामाजिक संगठनों, राजनैतिक दलों और मीडिया में भी उठाये गए हैं.   
सवाल वाजिब भी है, जब पहले से ही एक फंड है तो दूसरे की क्या आवश्यकता पडी. क्या कोरोना महामारी की आड़ में सरकार का कोई अन्य एजेंडा हो सकता है. दोनों फंड किन अवस्थाओं में स्थापित किया गया, पहले हम उसकी जानकारी प्राप्त कर लें. ‘प्रधानमंत्री राष्ट्रीय सहायता कोष’ जनवरी, १९४८ में उस समय के प्रधानमंत्री प. जवाहर लाल नेहरु द्वारा देश के विभाजन के समय विस्थापितों के पुनर्वास और सहायता  के लिए स्थापित किया गया था. उन्होंने जनता से इस कोष में दान देने के लिए अपील किया. उनके आवाहन पर जनता ने इस कोष में दिल खोल कर दान दिया और आज तक दान कर रही हैं. इसमे केवल जनता, संस्थाओं और कंपनियों ने पैसा दिया है, सरकार का इसमे कोई पैसा नहीं है. विस्थापन कार्य संपन होने के बाद इसका उपयोग प्राकृतिक आपदा जैसे बाढ़, तूफान, भूकंप से पीड़ित लोगो की सहायता और पुनर्वास के लिए किया जाने लगा. इसके साथ ही भयंकर दुर्घटनाओं, दंगो से पीड़ित लोगों को भी इसमे शामिल किया गया. स्वास्थ्य सेवाओं को भी इसमे जोड़ा गया और लोगो को गंभीर बिमारी जैसे ह्रदय की शल्यचिकित्सा, किडनी प्रत्यारोपण, कैंसर का इलाज आदि के लिए सहायता दी जाने लगी.
अपने सत्तर वर्षों से अधिक के काल में इस कोष में सबसे अधिक दान ९२६ करोड़ रूपए वर्ष २००४-०५ में प्राप्त हुए जब हिंद महासागर में आये सुनामी तूफान से लगभग दस हजार लोग मारे गए थे. इस राशि का उपयोग इन लोगो के परिवार की सहायता और पुनर्वास के लिए किया गया. इसके अतिरिक्त वर्ष २००९ में उड़ीसा और बंगाल में आये ऐला तूफ़ान से प्रभावित लोगो की सहायता और पुनर्वास, २०१२ में उत्तराखंड और २०१४  कश्मीर में आये भयंकर बाढ़ से प्रभावित लोगो की सहायता के लिए किया गया. समय की आवश्यकता के अनुसार इस कोष से अन्य पीड़ित लोगो की सहायता की गई जिसमे कुम्भ में भगदड़, छत्तीसगढ़ में नक्सली हमले, तमिलनाडु में पटाखों की फैक्ट्री में आग तथा कई स्थानों पर दंगो में घायल और मारे गए लोगो और उनके परिवार की सहायता भी शामिल है.
‘प्रधानमंत्री केयर्स फंड’ की स्थापना २८ मार्च, २०२० को कोरोना महामारी जैसी अन्य आपातकालीन, संकट की स्थिति में प्रभावित लोगो की सहायता के लिए किया गया है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि कोरोना महामारी के रोकने के लिए लोगो ने इसमे अपनी सहायता देने की इच्छा जाहिर की. उनकी भावनाओं का सम्मान करते हुए इस कोष की स्थापना की गयी है जो स्वस्थ भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा. यह आपदा प्रबंधन क्षमता को मजबूत करेगा और शोध आदि के माध्यम से लोगो की सेवा करने में सहायक होगा. जन साधारण के अतिरिक्त प्रसिद्ध व्यक्तियों एवं संस्थाओं ने भी इस कोष में दान देने का संकल्प लिया है.
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा इस फंड के घोषणा होते ही इस पर राजनीति आरम्भ हो गयी और पहले से ही एक कोष होने के बावजूद दूसरे की आवश्यकता क्यों पड़ी? प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा ‘प्रधानमंत्री केयर्स फंड’ की तीखी आलोचना करते हुए कहते हैं कि ‘प्रधानमंत्री राष्ट्रीय सहायता कोष’ के वजूद में होते हुए इस कोष के स्थापना की कोई आवश्यकता नहीं थी. यह स्वयं की प्रशंसा के लिए गढ़ा गया है और इस प्रचंड महामारी का उपयोग व्यक्ति पूजा को बढ़ाने के लिए है.
कई विपक्षी नेताओं ने भी इसकी आलोचना की है. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री को एक पत्र लिख कर दिए गए सुझावों में एक सुझाव यह भी दिया है कि ‘प्रधानमंत्री केयर्स फंड’ की समस्त राशि ‘प्रधानमंत्री राष्ट्रीय सहायता कोष’ में स्थान्तरित कर दी जाये जिसमे पहले से ही तीन हजार आठ सौ करोड़ रूपए हैं. कांग्रेस सांसद शशि थरूर कहते है कि एक अन्य ट्रस्ट बनाने की बजाये जिसके नियम और खर्चे अपारदर्शी हैं उन्होंने ‘प्रधानमंत्री राष्ट्रीय सहायता कोष’ का नाम बदल कर प्रधानमंत्री केयर्स फंड क्यों नहीं रख दिया. प्रधानमंत्री को अपने अतार्किक निर्णयों का जवाब देश को देना होगा.
इस फंड के पक्ष में भारतीय जनता पार्टी के सांसद राकेश सिन्हा कहते हैं कि इस फंड का उपयोग न केवल कोरोना वायरस से लड़ने के लिए किया जायेगा बल्कि लाक डाउन की वजह से प्रभावित लोगो की सहायता के लिए भी किया जा सकेगा. ‘प्रधानमंत्री राष्ट्रीय सहायता कोष’ में किसी दान के लिए मना नहीं किया है एवं  इस कोष का उपयोग अन्य सहायता कार्यो के लिए भी  किया जा सकता है. यहां लोग आश्वत है की इसका उपयोग केवल कोरोना वायरस से लड़ने के लिए किया जायेगा.
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर जो आक्षेप कांग्रेस लगा रही है उसका एक स्पष्ट कारण है. कांग्रेस कहती है कि मोदी सरकार उसकी योजनाओं का नाम वदल कर अपने पाले में ला रही है, योजना आयोग का नाम ही बदल कर नीति आयोग रख दिया. स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़े उसके नेताओं को कांग्रेस पार्टी के विरोध के लिए प्रचारित कर रही है और अपनी नाकामियों को छुपाने के लिए देश के प्रथम प्रधानमंत्री प. जवाहर लाल नेहरु की नीतियों को जिम्मेवार मान रही है. दूसरा कारण कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता निति पर भारतीय जनता पार्टी उसे हमेशा कटघरे में खड़ा रखती है पर कांग्रेस के पास उसके हिंदुत्ववादी एजेंडा का अभी तक कोई तोड़ नजर नहीं आ रहा है. तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण कारण नरेंद्र मोदी की वह कला है जिससे वह विषम परिस्थियों को अपने अनुकूल कर जनमानस को अपने पक्ष में करते हैं. इसका उदाहरण कोई भूला नहीं होगा जब आम चुनाव के दौरान राहुल गांधी का प्रचार जोड़ पकड़ता जा रहा था, तब पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक ने पाकिस्तान को तो सबक सिखाया ही पर सेना के उस पराक्रम का उपयोग जिस प्रकार उन्होंने जनमानस को अपने पक्ष में करने के लिए किया उससे समूचे विपक्ष के चुनाव प्रचार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा.
अब ताजा स्थिति वैश्विक महामारी कोरोना को लेकर बनी है. सरकार द्वारा गंभीर आरंभिक लापरवाहियां जिसने देश में कोरोना को फ़ैलाने में मदद करी, हजारों मजदूरों को सैकड़ों मील पैदल चल कर घर जाना पड़ा, लाखो लोगो को काम से और कई राज्यों से विस्थापित होना पड़ा, भूखे रहना पड़ा, हस्पतालों में डाक्टर, नर्सों और अन्य स्वास्थ्य कर्मियों को सुरक्षा सामग्री, मास्क आदि का उपलब्ध न होना और निर्यात के लिए उसकी अनुमति देना, आदि कमियों के बावजूद नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं दिखाई दे रही है. थाली बजाना, दिया जलना जैसे अपील पर अधिकतर जनता का साथ और वैश्विक नेताओं द्वारा कोरोना महामारी को देश और वैश्विक स्तर पर संभालने के लिए उनकी प्रशंसा हो रही है. इस महामारी के परिपेक्ष्य में नरेन्द्र मोदी ने बड़ी चतुराई से प. जवाहर लाल नेहरु द्वारा स्थापित ‘प्रधानमंत्री राष्ट्रीय सहायता कोष’ के स्थान पर ‘प्रधानमंत्री केयर्स कोष’ की स्थापना कर दी. आज की स्थिति में कांग्रेस पार्टी के पास इसका प्रतीकात्मक विरोध करने के सिवा कुछ बचा नहीं है. अब भविष्य ही बतायेया कि पुराने कोष के भाग्य में क्या लिखा है.                    
 कई लोगो के मन में पारदर्शिता का सवाल उठ रहा है उस पर भी एक नजर डाल लेते हैं. ‘प्रधानमंत्री राष्ट्रीय सहायता कोष’ के स्थापना के समय  इसका संचालन एक छ: सदस्य कमिटी करती थी जिसमे प्रधान मंत्री प. जवाहर लाल नेहरु, उपप्रधान मंत्री सरदार पटेल, वित् मंत्री शनमुखम शेट्टी, टाटा ट्रस्ट का एक प्रतिनिधि, कोंग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पट्टाभी सीतारमैया  आदि थे. १९८५ में राजीव गांधी की सरकार आने के बाद इस कोष का संचालन प्रधानमंत्री के  विवेक पर छोड़ दिया गया. इसका कार्य प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारी देखते हैं. कोष का वितरण और लाभार्थियों का चयन केवल प्रधान मंत्री के विवेक पर निर्भर है. ‘प्रधानमंत्री केयर्स फंड’ एक ट्रस्ट है. इसके संचालन और निर्णय के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ गृहमंत्री अमित शाह, रक्षामंत्री राजनाथ सिंह और वितमंत्री निर्मला सीतारमण को शामिल किया गया है. इसमे अंतिम निर्णय की जिम्मेदारी प्रधानमत्री की ही होगी.
दोनों ट्रस्ट में दान की राशि पर आयकर अधिनियनिम की धारा ८० (जी) के अंतर्गत शत प्रतिशत छूट प्राप्त है. इसी प्रकार दोनों ट्रस्ट में ‘कंपनियों के सामाजिक उत्तरदायित्व’ (कार्पोरेट सोशल रेस्पोंसिबिलिटी) के फंड में से दान दिया जा सकता है. ‘प्रधानमंत्री राष्ट्रीय सहायता कोष’ का ऑडिट थर्ड पार्टी द्वारा किया जाता है परन्तु ‘प्रधानमंत्री केयर्स कोष’ का ऑडिट कौन करेगा इस बारे में कोई जानकारी नहीं दी गयी है. जनता को यह जानने का अधिकार होना चाहिए कि उसके दान के पैसे का उपयोग कहां कहां और कैसे किया जा रहा है, अत: पारदर्शिता के लिए दोनों कोष का ऑडिट भारतीय नियंत्रक और महालेखा परिक्षक से करवाना चाहिए और दोनों कोष को ही सूचना के अधिकार अधिनियम के अंतर्गत लाना चाहिए. अभी तक लोग अपनी इच्छानुसार दोनों में से किसी भी कोष में दान कर सकते हैं. इसमे कोई बंधन नहीं है, परन्तु प्रधानमंत्री जिस कोष में दान देने की अपील करेंगे अधिकतर दान उसी कोष में आयेगा. 

n  अशोक कुमार शरण, प्रबंधक ट्रस्टी, सर्व सेवा संघ, सेवाग्राम (वर्धा)

Thursday 9 March 2017

Gandhi, Khadi and Government


गाँधी, खादी और सरकार
गांधी जी के लिये खादी एक वस्त्र नहीं, विचार था. एक महासाम्राज्य को परास्त करने का, ग्राम स्वावलंबन का, सामाजिक परिवर्तन का. अर्थात गाँधी जी इसके माध्यम से आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक परिवर्तन चाहते थे. जो पहने सो काते, जो काते सो पहने – गांधी के इस सूत्र ने घर घर चरखे का प्रसार किया  और कपास की खपत छोटे छोटे औजारों के माध्यम से विकेन्द्रित रूप में होने लगी. आम लोग चरखे के माध्यम से खादी के श्रमिक बने. इसी श्रम शक्ति ने उस समय के समाज को स्वतंत्रता आन्दोलन के लिए उद्वेलित किया. चरखे के माध्यम से खादी व्यक्तिगत ‘स्वराज’ का प्रतीक बना. हर नागरिक के हाथ में स्वावलंबन पाने का एक तंत्र तथा स्वतंत्रता प्राप्त करने का एक औजार और विचार भी. खादी तत्कालीन भारत में राजनैतिक उद्देश्यों के पूर्ति का भी कारण बनी. उपनिवेशियों के षड्यंत्रों द्वारा कुचले गये इस प्राथमिक ग्रामोद्योग को पुनर्जीवित करने हेतु बापू को  भगीरथ प्रयत्न करने पड़े.
गांधीजी के लिये चरखा आज़ादी की लड़ाई में  एक तलवार बना, असहायों के आन्दोलन का माध्यम बना और अहिंसा का सशक्त हथियार बना. साथ ही बापू के समझ के अनुसार खादी को भारत की आर्थिक आजादी की भी कुंजी बनाना था. 1929 में बापूजी ने एक चरखा अभिकल्प प्रतियोगिता घोषित की. इस के लिये एक लाख का  पुरस्कार भी घोषित किया. रुपये 150/- से कम कीमत वाला, प्रति वर्ष 5-7 रुपये से कम मरम्मत खर्च वाला और पूनि बनाने की सुविधावाला यह सुवाह्य (portable)  और पेडल द्वारा भी चलाने लायक चरखे की उत्पादकता करीब पाँच गुना होना था. दुर्भाग्यवश बापूजी के जीवनकाल में इस चुनौती का उत्तर कोई नहीं दे पाया.
गांधीजी ने सुझाव दिया कि सभी उत्पादक संस्थायें स्वावलंबी बनें और अपने अपने क्षेत्र  के लिये पर्याप्त  खादी बनायें. साथ ही स्थानीय बाजार भी ढूंढा जाये. कुल मिलाकर स्थानीय स्तर के खादी संस्थान अपने को स्वायत्त बनायें और स्वावलंबी  होवें यहाँ तक कि केंद्रीय संघटन को नज़रअंदाज़  कर आगे बढ़ें. मुख्य रूप से खादी को पूर्ण-रोजगार का साधन न मानकर अतिरिक्त कमाई की एक संभावना के रूप में माना जाये. देश आजाद होने के बाद खादी के कार्य में तब तक कोई रूकावट नहीं आयी जब तक गाँधी जी के साथ के लोग खादी के कार्य में लगे रहे और सरकार में भी स्वतंत्रता आन्दोलन के  समय के लोग बने रहे. अस्सी के दशक के बाद खादी की नीतियों काफी परिवर्तन हुए जो इसके विकास में आशातीत सफलता नहीं दिला सके. दस वर्ष की मनमोहन सरकार में खादी संस्थाएं सरकार और आयोग से नीतिगत विषयों को लेकर संघर्ष करती रही जिसका कोई अनुकूल परिणाम प्राप्त नहीं हुआ.  
खादी ग्रामोद्योग आयोग के कैलेंडर और डायरी पर गाँधी जी की जगह  भारत के  प्रधानमंत्री मोदी जी का चरखा चलाते हुए फोटो छापने पर जो विवाद हुआ वह अचानक नहीं है बल्कि यह वर्तमान सरकार के आने के पश्चात् खादी ग्रामोद्योग आयोग द्वारा गाँधी की खादी में जो नीतिगत बदलाव किये जा रहे है यह उसके विरोध स्वरुप है. वर्तमान आयोग द्वारा मोदी जी को खुश करने के चक्कर में जो भी प्रतिकूल निर्णय लिए जा रहे है उससे न केवल आयोग के कर्मचारी बल्कि खादी संस्थाओं के पदाधिकारी और कार्यकर्त्ता भी आयोग के विरुद्ध खड़े हैं. फोटो कांड पर मुम्बई में  आयोग के कर्मचारियों द्वारा विरोध जताने पर तो सम्पूर्ण देश में मानो भूचाल आ गया परन्तु पूरे देश में खादी  संस्थाओं द्वारा आयोग की विभिन्न नीतियों के विरोध में जो आवाज उठाई जा रही है वह न तो मीडिया में आ रहा है और न ही विभिन्न राजनैतिक दलों के नेताओं से उसका समर्थन मिल पा रहा है. इसका अर्थ है कि खादी संस्थाओं में नेतृत्व का आभाव है और तथाकथित खादी के नेता कुछ कर पाने में असमर्थ है.
खादी संस्थाओं और उनके नेताओं के लिए यह एक गंभीर विचारणीय प्रश्न होना चाहिए कि खादी ग्रामोद्योग आयोग के मुट्ठी भर कर्मचारियों ने एक मुद्दा उठाया तो पुरे देश में चर्चा हुयी और उसका कुछ समाधान हुआ, आयोग पर कुछ दबाव बना. परन्तु उनके द्वारा उठाये मुद्दों की कोई सुनवाई नहीं हो रही है. इसका एक प्रमुख कारण भी है कि खादी ग्रामोद्योग  आयोग में कर्मचारियों की दो यूनियन है. एक के अध्यक्ष भारत सरकार के मंत्री प्रकाश जावडेकर है तो दूसरी यूनियन के अध्यक्ष लोकसभा में शिवसेना के सांसद हर्सुल जी है. शिवसेना मोदी सरकार में शामिल होते हुए भी उसके नीतियों के विरोध में जादा जानी  जाती है और कोई ऐसा मौका नहीं चूकना चाहती जिससे सरकार की किरकिरी हो. डायरी और कैलेंडर का मुद्दा भी उन्होंने लपक लिया. उसके बाद आयोग और सरकार की जो फजीहत हुयी वह सबके सामने है.
इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि खादी संस्थाओं को भी अपनी गैर राजनैतिक छवि को समाप्त कर राजनैतिक दलों के शरण में जाना चाहिए. वे गाँधी के रचनात्मक भूमिका में है और उन्हें अपने को वहीं तक केन्द्रित रखना चाहिये, लेकिन गाँधी के आत्मबल के साथ. खादी और ग्रामोद्योग आयोग तथा सरकार तो गाँधी की खादी को भूल गयी है, परन्तु खादी संस्थओं पर ही यह आशा टिकी हुयी है कि वे उसे बचा कर रखे.  आज अधिकतर खादी संस्थाओं का आत्मविश्वास तो डगमगाया हुआ है परन्तु उससे भी बड़ी बात यह है की उन्हें सरकारी सब्सिडी के सहारे की आदत सी पड़ गयी है. उनके अन्दर जो सामर्थ्य, शक्ति और ऊर्जा है, वे उसे पहचान नहीं पा रहे है, भूल गए है. पर जिन्होंने पहचान लिया है वे संस्थाएं अपने पैरों पर खड़ी है. उन्हें सरकारी सहायता की आवश्यकता नहीं है.
खादी के सुधार के लिए समय समय पर सरकार द्वारा बहुत सी समितियां बनाई गयी जिसमे अशोक मेहता कमेटी, पन्त कमेटी, रामक्रिशनय्या कमेटी, पूर्व प्रधानमंत्री श्री पी. वी. नरसिम्हा राव की अध्यक्षता में हाई पॉवर कमेटी आदि प्रमुख है. पर कभी भी इन समितियों के सुझावों को पूर्ण रूप से लागू नहीं किया गया जिसके फलस्वरूप आज  खादी और संस्थाओं की यह दुर्दशा है. केवल सरकार को दोष देने से ही काम नहीं चलेगा. खादी संस्थाओं के शीर्ष संगठन खादी मिशन और सर्व सेवा संघ भी इसके लिए बहुत कुछ नहीं कर पाए. सर्व सेवा संघ ने तो विरासत में मिली इस धरोहर को इस आशा में खादी ग्रामोद्योग आयोग को सौंप दिया था कि खादी के अधिकतर वरिष्ठ लोग आयोग में खादी का कार्य देखने लगे थे. परन्तु समय के साथ साथ पुराने अनुभवी लोग जाते गए और आने वाले नए लोगो को इसकी समझ थी नहीं. सर्व सेवा संघ की खादी समिति अब कुछ सक्रिय हुयी है. उसने अपनी एक रिपोर्ट भी सरकार को सौंपी है. आवश्यकता इस बात की भी है कि वस्त्र मंत्रालय की टेक्सटाइल पालिसी की भांति भारत सरकार खादी के जानकार लोगो को लेकर एक खादी पालिसी बनाये जिसे वास्तव में अमलीजामा पहनाया जाये. 
यह कितनी अजीब बात है कि खादी ग्रामोद्योग आयोग एक मीटर भी खादी का कपडा नहीं बनाता और पूरे देश में ढिंढोरा पीट रहा है जैसे वही गांव गांव जाकर कतिन्न बुनकरों से कपड़ा बनवा रहा है. अत्यधिक वेतन पाने वाले इसके कर्मचारी तो अपनी कुर्सी से हिलते भी नहीं, अधिकारी वातानुकूलित कमरों से बाहर निकलते नहीं और आयोग कभी फैशन के नाम पर, कभी भवन के उद्घाटन के नाम पर, कभी चरखे को एअरपोर्ट पर तो कभी कनाट प्लेस, दिल्ली में लगा कर तो कभी कैलेंडर और डायरी से हटा कर तो कभी जोड़ कर खोखली वाहवाही बटोर रहा है. वास्तव में खादी का उत्पादन करने वाली संस्थाओं का तो उत्पीडन हो रहा है. उनकी समस्याओं को न तो खादी आयोग और न ही सरकार सुनती है. केवल नादिरशाही हुक्म देती है, शोषण करती है जिसकी कोई सुनवाई भी नहीं होती.
आरंभ में खादी ग्रामोद्योग आयोग खादी के कार्य को सामाजिक और रोजगार परक कार्य मानते हुए अपनी नीति तय करता था और उसी अनुरूप सहायता का स्वरुप बनाता था. इसी के अनुसार खादी का पड़ता चार्ट बनाया जाता था. आयोग ने हाल में ही निर्णय लिया है कि वह अपने खर्चो की पूर्ति के लिए ना लाभ ना हानि के आधार पर काम करने वाली संस्थाओ से विभिन्न खर्चो की वसूली करेगा.
खादी का प्रमाण पत्र लेने या नवीनीकरण करने के लिए जो फीस रूपए ५०००/- थी उसे मई २०१६ में बढ़ा कर रुपये ५०,००० /- कर दिया गया है. संस्थाओ के काफी विरोध करने के बाद इसे रूपए ३००००/- कर दिया गया यानि ६०० प्रतिशत बढ़ा दिया गया है. इसी प्रकार आयोग ने अगस्त २०१५ से ऑडिट  फीस लेने का भी निर्णय लिया है जबकि संस्थाओ को चार्टर्ड अकाउंटेंट से ऑडिट करवाना पहले से ही  आवश्यक है. इसकी न्यूनतम राशी रूपए ५०००/- तथा अधिकतम रूपए ३००००/- रखी गयी है. पिछले ६० वर्षो में ऐसा कभी नहीं हुआ.
आयोग ने देश की सभी संस्थाओ के विरोध के बावजूद खादी मार्क लागू किया जिसकी शर्ते खादी के स्वरुप को नष्ट करने वाली है. जून २०१६ से खादी संस्थाओं के लिए प्रति पांच वर्ष फीस रूपए १०,०००/-, व्यक्तिगत रूपए २५०००/- तथा कंपनी के लिए रूपए ५,००,०००/- रखा गया है. तात्पर्य यह है कि खादी की जो पवित्रता खादी संस्थाओ  द्वारा गावों  में रोजगार देने के लिए बना कर रखी गयी थी, वह खुले बाजार के हवाले कर दी गयी है. सरकार ने सिल्क मार्क, हैंडलूम मार्क, आदि भी बनाये है परन्तु यह स्वेच्छिक है. इसे लेने के लिए उत्पादन या बिक्री करने वालों पर किसी प्रकार का दबाव नहीं बनाया जाता या उनकी बांह नहीं मरोड़ी जाती. इतना ही नहीं जून २०१६ से खादी आयोग ने संस्थाओं की कुल बिक्री पर २ प्रतिशत रायल्टी वसूलने का निर्णय लिया है जिसे काफी विरोध के बाद स्थगित किया गया है. यह सब सातवे वेतन आयोग की करामात है कि आयोग अपने कर्मचारिओं के खर्चे पूरे करने के लिए इस प्रकार के हथकंडे सरकार के दबाव में अपना रही है. फीस / मूल्यों में इस प्रकार की बढौतरी किसी भी क्षेत्र में नहीं होती चाहे वह शिक्षा, उद्योग, व्यापार, कृषी, बिजली, पानी या आम उपभोक्ता से जुड़ी कोई भी वस्तु क्यों न हो. 
आयकर से छूट प्राप्त करने के प्रमाण पत्र जारी करने के लिए आयोग संस्थाओं से रूपए १०००/- का शुल्क लेता था. परन्तु  जनवरी २०१६  से आयोग ने न्यूनतम शुल्क रूपए ५०००/- और अधिकतम शुल्क रूपए २००००/- प्रतिवर्ष निर्धारित कर दिया है. यह सपष्ट है कि गांधी जी के समय से ले कर अब तक खादी को जिन आदर्शो पर चलाया गया उस व्यवस्था को छिन्न भिन्न कर दिया गया है.
इसके अतिरिक्त भी खादी संस्थाओं और कारीगरों को कई समस्यायों से जूझना पड़ रहा है. संस्थाओं पर यह दबाव डाला जा रहा है कि पूनी खादी ग्रामोद्योग आयोग के पूनी सयंत्रो से ही ले जिसकी कीमत बाजार में उपलब्ध पूनी से डेढ़ गुणा अधिक और गुणवत्ता बहुत ही घटिया है जिससे उत्पादन कम और खादी की कीमत अधिक हो जाती है. यदि बाजार में पूनी १०० रूपए है तो आयोग की पूनी १५० रूपए है.
देश भर में सरकार लगभग हर क्षेत्र चाहे वह औद्योगिक घराने हो या कृषि का क्षेत्र सभी के लोन माफ़ करती है. यहाँ तक कि हैंडलूम क्षेत्र के लिए भी यू.पी.ए. सरकार ने हजारों करोड़ रूपए के लोन माफ़ किये परन्तु खादी वालों की कोई सुनवाई नहीं, ना तो तब और ना ही अब. खादी ग्रामोद्योग आयोग द्वारा खादी क्षेत्र के संपूर्ण क़र्ज़ रुपये २४०८.०२ करोड़ को मुक्त कराने हेतु प्रस्ताव काफी समय पूर्व सरकार को भिजवाया जा चुका है. आयोग के आंकड़ो के आधार पर सरकार पर केवल रूपए ८३२.६५ करोड़ का आर्थिक भार होगा. संस्थओं ने बैंक कर्ज से तीन गुणा अधिक तक भुगतान कर दिया है. इस विषय का अध्ययन भारत सरकार / आयोग द्वारा नियुक्त विशेषज्ञ संस्थाओं  / विभागों द्वारा किया जाकर खादी संस्थाओं को क़र्ज़-मुक्त करने की अनुशंसा की जा चुकी है. फिर भी इस तरफ  कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है. खादी के कार्य एवं संस्थाओं की मजबूती के उद्देश्य से यह आवश्यक है कि सरकार यह लोन माफ़ करे.
खादी की समस्यायों से छुटकारा पाने के लिए यह आवश्यक है कि खादी ग्रामोद्योग आयोग के साथ साथ सरकार पर भी दबाव बनाया जाये ताकि वे अपनी नीतियों में परिवर्तन कर खादी के मूल स्वरुप को बनाए रखे और यदि नीतिगत और तकनिकी तौर पर कोई परिवर्तन करना है तो खादी संस्थाओं को विश्वास में ले कर करे. खादी समिति और संस्थाओं को भी अपनी भूमिका नए सिरे से पहचानने की आवश्यकता है जो चरखा संघ के समय से चला आ रहा है तभी गाँधी की खादी का सपना साकार हो सकेगा.

अशोक शरण
संयोजक, खादी समिति, सर्व सेवा संघ, पूर्व निदेशक खादी ग्रामोद्योग आयोग